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देश में नवरात्रि की धूम

इस साल शारदीय नवरात्रि की शुरुआत 26 सितंबर यानि कल से 5 अक्टूबर तक देवी दुर्गा की पाठ-पूजा व अर्चना होगी।
By: MGB Desk
| 27 Sep, 2022 4:48 pm

खास बातें
  • माता रानी के रूप
  • किस दिन किस तरह माता रानी का पूजन


 हिंदू मान्यता के अनुसार शारदीय नवरात्रि का पर्व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। इस साल शारदीय नवरात्रि की शुरुआत 26 सितंबर यानि कल से 5 अक्टूबर तक देवी दुर्गा की पाठ-पूजा व अर्चना होगी। नवरात्रि में 9 दिन मां दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा की जाती है। जैसे :- प्रथम स्वरूप माँ ‘शैलपुत्री’, दूसरा रूप माँ ‘ब्रह्मचारिणी,  तीसरा रूप मां ‘चंद्रघंटा’,चौथा रूप माँ ‘कूष्मांडा’, पांचवां रूप ‘मां स्कंदमाता’, छठा रूप ‘मां कात्यायनी’, सातवां रूप ‘मां कालरात्रि’,आठवां रूप ‘मां महागौरी’,नौवां रूप ‘मां सिद्धिदात्री’ है।  

 हिंदू धर्म में त्योहारों और व्रतों का विशेष महत्व है। हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की पाठ-पूजा व अर्चना होती है। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण पर्व नवरात्रि का है। देश-दुनिया में नवरात्रि की तैयारिओं को लेकर काफी धूम लगी है और बाजार भी चमचमते नज़रआ रहे है। देश के अलग-अलग शहरों और इलाको में माँ दुर्गा के लिए भव्य-पंडाल की तैयारियां पूरी हो चुकी है, और लोगों में अलग ही उत्साह देखा जा रहा है। लेकिन कोलकाता की दुर्गा पूरा विश्व में विख्यात है। ऐसा इस लिए क्योंकि इस साल दुर्गा पूजा के कार्यक्रम को लेकर खास तैयारियां भी की जा रही है। कोलकाता की दुर्गा पूजा का अंदाज ही निराला और काफी भव्य होता है।  

नवरात्रि के पहले दिन कलश स्थापना कर मां दुर्गा का अव्हान किया जाता है और उसके बाद मां शैलपुत्री की पूजा होती है। इस साल मां दुर्गा का आगमन बेहद शुभ संयोग माना जा रहा है। क्योंकि इस बार मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर धरती पर आ रही है और साथ ही भक्तों के लिए सुख-समृद्धि, धन-आयु-बल की वृद्धि व आगमन होगा। 
 
मां दुर्गा से जुड़ी एक पौराणिक कथा के मुताबिक, महिषासुर नमक राक्षस को ब्रह्मा जी ने एक वरदान दिया था कि उसे कोई देवता, दानव, और धरती पर रहने वाले लोगो नहीं मार पाएगें। वरदान प्राप्त करने के बाद महिषासुर ने पृथ्वी पर आतंक मचा शुरू कर दिया था। महिषासुर का अंत करने के लिए माँ दुर्गा का जन्म हुआ। नौ दिनों तक माता दुर्गा और महिषासुर के बीच युद्ध हुआ और अंत में माता दुर्गा ने महिषासुर का वध कर दिया।

इसी मान्यता के अनुसार शारदीय नवरात्रि की शुरुआत भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम ने की थी। भगवान राम जब माता सीता को रावण से आजाद कराने के लिए युद्ध करने जा रहे थे, तो उन्होंने रामेश्वरम में समुद्र के किनारे शारदीय नवरात्रि की पूजा की। नौ दिनों तक माता शक्ति की अर्चना-आराधना के बाद दसवें दिन श्रीराम ने रावण का वध करके लंका पर विजय हासिल की। इस कारण नौ दिनों की नवरात्रि पूजा के बाद दसवें दिन दशहरा मनाते |

* माता दुर्गा का पहला रूप "माँ शैलपुत्री"

 मंत्र :-
                                                                       या देवी सर्वभू‍तेषु मां शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
                                                                              नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ 


नवरात्री में माँ दुर्गा के नौओ रूप की पूजा पूरे विधि विधान से की जाती है। पहले दिन माँ शैलपुत्री की पूजा होती है। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण माँ दुर्गा के इस रूप को शैलपुत्री कहा जाता है। माँ शैलपुत्री वृषभ की सवारी करती है जिस कारण इन्हे देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जाना जाता है।  इनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल रहता है। माँ अपने अस्त्र त्रिशूल की तरह ही  मनुष्य के त्रीलक्ष्य यानि की धर्म,अर्थ और मोक्ष के मूलाधार चक्र पर सक्रिय बल है। 
माता शैलपुत्री ही प्रथम दुर्गा है और ये माँ सती के रूप में भी जानी जाती है ।  माँ शैलपुत्री की एक कहानी है जो हम आपको इस वीडियो में बताने जा रहे। 
एक बार प्रजापति दक्ष यज्ञ करवाने वाले थे और इसके लिए उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया था। लेकिन उन्होंने भगवान शिव को निमंत्रित नहीं किया। देवी सती को लगता था की उनके पास निमंत्रण जरूर आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो प्रजापति दक्ष के इस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं, लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया। शिव जी ने कहा की यज्ञ में जाने के लिए उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं होगा। लेकिन माँ सती नहीं मानीं और बार बार यज्ञ में जाने की ज़िद करती रहीं। सती के ना मानने के कारण फिर शिव जी ने उनकी बात मानी ली और यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।
जब माँ सती अपने पिता प्रजापित दक्ष के यहां पहुंची तो उन्होंने देखा कि उनसे कोई भी आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। सभी लोग मुँह फेरे हुए हैं। वहाँ बस उनकी माता ही उनसे  स्नेह से बात कर रही थी। उनकी बहनें भी उनका और उनके पति भगवान शिव का मज़ाक उड़ा रहीं थीं। स्वयं उनके  पिता प्रजापति दक्ष ने भी उनका और शिव जी का अपमान करने का कोई मौका नहीं  छोड़ा। ऐसा दुर्व्यवहार देखकर माँ सती का मन उदास हो गया । वो अपने और अपने पति के अपमान को सह नहीं पायी।  अगले ही पल माँ सती उसी यज्ञ की अग्नि में कूद गयी और खुद को स्वाहा कर अपने प्राण त्याग दिए। 
भगवान शिव को जैसे ही इस घटना के बारे में पता चला तो वो दुखी हो गए और गुस्से की ज्वाला में जलने लगे। उसके बाद शिव जी ने उस यज्ञ को ध्वस्त कर दिया। बाद में माँ सती ने हिमालय के यहां जन्म लिया और इस वजह से इनका नाम शैलपुत्री पड़ गया ।
मां शैलपुत्री की पूजा करने के लिए आप ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान-ध्यान करे और पूजा स्थान की साफ-सफाई कर ले। इसके बाद एक चौकी स्थापित कर  उसपर गंगाजल छिड़के और लाल रंग का वस्त्र बिछाएं।  चौकी पर फिर माता के सभी स्वरूपों को स्थापित करें। इसके बाद मां शैलपुत्री की वंदना करे और व्रत का संकल्प लें। माता को सफेद रंग का पुष्प अर्पित कर फिर अक्षत और सिंदूर चढ़ाये। एक बात का ख़ास ध्यान रखे  कि मां शैलपुत्री को सफेद रंग का ही वस्त्र अर्पित करें और गाय के घी से बने मिठाई का भोग लगाएं। फिर माँ के लिए घी का दीपक जलाएं और उनकी आरती करें।

* नवरात्रि का दूसरा दिन मां ब्रह्मचारिणी

 मंत्र :-

                                                         या देवी सर्वभेतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। 
                                                                    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।  

आज शारदीय नवरात्रि का दूसरा दिन है इस दिन मां दुर्गा के दूसरे स्वरूप, माँ ब्रह्माचारिणी की पूजा की जाती हैं। ब्रह्म का मतलब तपस्या होता है, तो वहीं चारिणी का मतलब आचरण करने वाली। इसलिए माँ ब्रह्माचारिणी को तपस्चारिणी भी कहते हैं। मां ब्रह्माचारिणी के दाहिने हाथ में मंत्र जपने की माला और बाएं हाथ में कमंडल रहता है। इस लिए माँ ब्रह्मचारिणी को ज्ञान और तप की देवी कहा जाता हैं। मुनियों का कहना हैं कि जो भी भक्त सच्चे मन व श्रद्धा से मां ब्रह्माचारिणी की पूजा करते हैं, उन्हें धैर्य के साथ-साथ ज्ञान की भी प्राप्ति होती है। साथ ही मनुष्य के कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मन विचलित नहीं होता। 

मां ब्रह्माचारिणी की पौराणिक कथा के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी ने पर्वतराज हिम के घर, पुत्री के रूप पर जन्म लिया।माँ ब्रह्मचारिणी ने नारद जी की सलाह पर, भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस तपस्या की वजह से उनका नाम ब्रह्माचारिणी पड़ा। एक हजार सालों तक उन्होंने फल और फूल खाकर समय बिताया और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर तपस्या की। पौराणिक कथा के अनुसार  माँ ने कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रहकर कठोर तपस्या की। उनकी भक्ति से सभी देवता प्रसन्न हुए और उन्हें मनोकामना पूर्ति का वरदान दिया।
 
आइए आप को मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-पाठ के नियम बातें है :-
- मां ब्रह्मचारिणी की उपासना के समय पीले या सफेद वस्त्र पहने चाहिए।
- मां को सफेद वस्तुएं अर्पित करें जैसे- मिश्री, शक्कर या पंचामृत।
- 'स्वाधिष्ठान चक्र' पर ज्योति का ध्यान करें या उसी चक्र पर अर्ध चन्द्र का ध्यान करें।
- मां ब्रह्मचारिणी के लिए "ऊं ऐं नमः" का जाप करें और फलाहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

* नवरात्री का तीसरे दिन माँ चंद्रघंटा  

 मंत्र :-

                                                                 या देवी सर्वभू‍तेषु मां चन्द्रघण्टा रूपेण संस्थिता।
                                                                           नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

इन्हे देवी पार्वती का रौद्र रूप माना जाता है। माँ चंद्रघंटा का शरीर स्वर्ण के समान चमकता है। माँ के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चाँद होता है जिस कारण उनका नाम चंद्रघंटा पड़ा। माँ बाघ की सवारी करती और इनके दस भुजाओं में अलग-अलग चीज़े होती है जैसे की त्रिशूल, कमल, धनुष बाण, तलवार, कमंडल, गदा और जप माला। माँ चंद्रघंटा का एक हाथ वरद मुद्रा में होता है और माँ कंठ में सफ़ेद पुष्प की माला पहने होती है। माता अपने दोनों हाथों से भक्तों को चिरायु, आरोग्य और सुख-संपदा का आशीर्वाद देती हैं।
मां चंद्रघण्‍टा की तीसरे दिन पूजा होने के पीछे एक कारण है। कहा जाता है की माता का पहला और दूसरा अवतार भगवान शिव को पाने के लिए है।  जब मां को शिव जी पति के रूप में प्राप्त हो जाते हैं तब वह आदिशक्ति रूप में आ जाती हैं। देवी पार्वती के जीवन की तीसरी बड़ी घटना के रूप में उन्हें उनका प्रिय वाहन बाघ मिलता है। यही वजह है कि माता बाघ पर सवार हैं और भक्तों को दर्शन देती है। 
माता चंद्रघण्‍टा को प्रसन्न करने के लिए भक्तो को लाल या भूरे रंग के कपड़े पहनने चाहिए। साथ ही मां को सफेद चीज़े जैसे की दूध या दूध से बनी खीर आदि का भोग लगाना चाहिए। इसके अलावा आप  माँ को शहद का भी भोग लगा सकते हैं। 
मां चंद्रघण्‍टा की कृपा दृष्टि मात्र से मनुष्य के सभी पाप, कष्ट और बाधाएं दूर हो जाती हैं। माता के इस स्‍वरूप की उपासना करने से उपासक निर्भयी और वीर  हो जाता है। मां अपने भक्‍तों के कष्‍ट का तुरंत निवारण करती हैं। माँ दुर्गा के इस स्वरूप की पूजा करने से नजरदोष-प्रेतबाधा जैसी कई नकारात्मक शक्तियों का भय दूर हो जाता है।

मां दुर्गा के चौथे स्वरूप, माँ कुष्मांडा 

 मंत्र :-

                           या देवी सर्वभूतेषु मां कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
                                    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

शारदीय नवरात्रि का आज चौथा दिन है। इस दिन मां दुर्गा के चौथे स्वरूप, माँ कुष्मांडा की पूजा-पाठ की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार माता ने अपनी मंद मुस्कान से सृष्टि की रचना की थी, इसलिए माता को सृष्टि की आदिशक्ति भी कहा जाता है। माता को आठ भुजाओ वाली भी कहा जाता है। 
माता की आठों भुजाओं में कमंडल, धनुष बांण, शंख, चक्र, गदा, सिद्धि-निधि से युक्त जप माला और अमृत कलश रहता है। मां कुष्मांडा ने अपनी हल्की-हल्की मुस्कान की चमक बिखेरकर सृष्टि की रचना की थी, इसलिए माता को आदि स्वरूपा और आदिशक्ति कहा जाता है। माता की मुस्कान से पूरा ब्रह्मांड प्रकाशमय हो उठा और इसके बाद माता ने सूर्य, तारे, ग्रह और सभी आकाश गंगाओं का निर्माण किया। माता को धरती जननी भी कहा जाता है। सूर्य मंडल के पास के एक लोक में मां कुष्मांडा निवास करती हैं।  
पौराणिक कथाओ के अनुसार, मां कुष्मांडा का जन्म दैत्यों का संहार करने के लिए हुआ था। कुष्मांडा का अर्थ कुम्हड़ा होता है। कुम्हड़े को कुष्मांड कहा जाता है इसीलिए मां दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कुष्मांडा रखा गया था । माँ का वाहन सिंह है। जो भक्त मां कूष्मांडा की विधिवत से पूजा-पाठ करता है उससे बल, यश, आयु और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।  मां कुष्मांडा को लगाए गए भोग को, माँ  ख़ुशी से स्वीकार करती हैं। यह कहा जाता है कि मां कुष्मांडा को मालपुए अधिक प्रिय हैं इसीलिए नवरात्रि के चौथे दिन उन्हें मालपुए का भोग लगाया जाता है।
  आइए जानते है माँ कुष्मांडा की पूजा विधि क्या है 
 पूजा में मां को लाल रंग का पुष्प, गुड़हल, या फिर गुलाब अर्पित करें। और इसके साथ ही सिंदूर, धूप, दीप और नैवेद्य चढ़ाएं। मां की पूजा आप हरे रंग के वस्त्र पहनकर करना अधिक शुभ माना जाता है।  माँ कुष्मांडा की पूजा करने से,आपकी समस्त दु:ख दूर हो जाते हैं।

नवरात्री का पांचवा दिन स्कंदमाता

 मंत्र :-

           या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

नवरात्री के पांचवे दिन माँ दुर्गा के पांचवे स्वरुप स्कंदमाता की पूजा होती है।  मां दुर्गा के इस स्वरुप को मातृत्व परिभाषित करने वाला रूप माना जाता है। स्कंदमाता अपनी दांयी तरफ की ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में लिए हैं और नीचे की भुजा में कमल का पुष्प थामे हैं। उनकी बांयी तरफ की ऊपरी भुजा वरदमुद्रा में है और नीचे की भुजा में कमल है। स्कंदमाता अपने वाहन शेर पर सवारी करती है। आईये अब हम आपको स्कंदमाता की कथा और पूजा की विधि बताते है। 
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तारकासुर नाम के राक्षस ने भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की, जिसके बाद ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए। तारकासुर ने ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान मांगा जिसपर ब्रह्मा जी ने तारकासुर को समझाया कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तय है। ये सुनकर तारकासुर ने शिवजी के पुत्र के हाथों मृत्यु का वरदान मांगा क्योंकि वह सोचता था कि शिवजी कभी विवाह नहीं करेंगे और इस कारण उनका पुत्र भी नहीं होगा। और ऐसे में उसकी मृत्यु भी कभी नहीं होगी। 
ब्रह्माजी ने तारकासुर को ये वरदान दे दिया। वरदान मिलने के बाद वह जनता पर अत्याचार करने लगा। लोग परेशान होकर शिवजी के पास गए और उनसे  तारकासुर से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। लोगो की गुहार सुनने के बाद  शिवजी ने माँ पार्वती से विवाह किया और भगवान कार्तिकेय पैदा हुए। कार्तिकेय जब बड़े हुए तब उन्होंने तारकासुर का वध किया।  कार्तिकेय को ही भगवान स्कंद कहते है और उनकी माता होने के कारण माँ के इस स्वरुप को स्कंदमाता कहा जाता है। 
स्कंदमाता की पूजा करने के लिए सुबह उठकर स्नान करने के बाद साफ़ वस्त्र पहने। पूजास्थल पर स्कंदमाता की मूर्ति स्थापित कर पूजन शुरू करें। सबसे पहले मां की मूर्ति को गंगाजल से शुद्ध करें और मां को पुष्प अर्पित करें।  फिर माँ को मिठाई और 5 तरह के फलों का भोग लगाएं। इसके साथ ही 6 इलायची भी भोग में अर्पित करे और कलश में पानी भरकर उसमें कुछ सिक्के डाल दें। इसके बाद पूजा का संकल्प लें और मां को रोली-कुमकुम का तिलक लगाएं। पूजा के बाद मां की आरती उतारें और मंत्र जाप करें। 
स्कंदमाता को अत्यंत दयालु माना जाता है। माँ की पूजा अर्चना करने से साधक को अलौकिक तेज की प्राप्ति होती है। 

मां दुर्गा की छठी स्वरुप माँ कात्यायनी

 मंत्र :-

             या देवी सर्वभूतेषु मां कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
            नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः


आज नवरात्रि के छठे दिन हैं। इस दिन मां दुर्गा की छठी स्वरुप माँ कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनका स्वरूप चमकीला और तेजमय होता है। इनकी पूजा करने से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने के लिए सक्षम बनाती हैं।  इनकी चार भुजाएं होती हैं।इनकी दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में रहती है तो वहीं नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में है। मां कात्यायनी के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार धारण करती हैं और नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सजा रहता है। इनकी आराधना करने से भक्तों के  समस्त पाप, रोग, क्लेश व भय से मुक्ति मिलती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार जो भी माँ कात्यायनी की पूजा-पाठ,तन मन से करते है उन्हें परम पद की प्राप्ति होती है। मां की कथा भी मां की तरह अद्भुत और निराली है। मां कात्यायनी की कथा में एक अलग ही प्रकार का रहस्य छुपा हुआ है। माता पार्वती के नौ रूपों में ये एक मात्र ऐसा स्वरूप है जिनका ब्रज धाम में अत्यंत महत्व है। आज भी ब्रज मंडल में माँ कात्यायनी का वास है और उन्हें कृष्ण की पूजा करने से पहले पूजा जाता है।  
पौराणिक कथा के अनुसार, कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि ने मां भगवती जगदम्बा की कई वर्षों तक कठिन तपस्या की थी,और उन्हें पुत्री के रूप में प्राप्त करने वचन लिया। मां भगवती ने उनकी इच्छा को स्वीकार करते हुए उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। ऐसा भी माना जाता हैं की जब दानव महिषासुर का अत्याचार धरती पर बढ़ रहा था। तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवों ने अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया था। 
महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाईं। माँ कात्यायनी ऋषि के यहां जन्म लेने और सर्वप्रथम उनके द्वारा पूजे-जाने के कारण वह कात्यायनी कहलाईं। मां कात्यायनी ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रसिद्ध हैं क्योंकि भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। 
मां कात्यायनी की पूजा-पाठ में शहद और पान का भोग जरूर लगाना चाहिए। क्योंकि इससे मां प्रसन्न होती हैं और भक्तों की सभी मनोकामनाओं व इच्छा को पूरी करती हैं। आप माता को केसरी फिरनी का भोग लगा सकते हैं। इसे आप शक्कर की जगह शहद से बना सकते हैं। यह एक बहुत ही स्वादिष्ट भोग होता हैं।  जिसे चावल, चीनी या शहद दूध, इलाइची और काजू-किशमिस डालकर बनाया जाता है। 
चलिए आपको मां कात्यायनी की पूजा विधि के बारें में बताते हैं 
- इस दिन माँ कात्यायनी का ध्यान करते समय उनके सामने धूप दीप प्रज्ज्वलित करें। 
- रोली व कुमकुम से मां को तिलक करें और अक्षत अर्पित कर पूजन करें.
- मां कात्यायानी को गुड़हल या लाल रंग का फूल चढ़ाए। 
- उसके बाद मां कात्यायनी की आरती करें और पूजा के अंत में क्षमायाचना मांगे। 
- देवी भगवती की कृपा प्राप्त करने के लिए दुर्गा सप्तशती, कवच और दुर्गा चलीसा आदि का पाठ करें।

नवरात्री का सातवां दिन, माँ कालरात्रि 

 मंत्र :-

                                या देवी सर्वभू‍तेषु मां कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
                               नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

नवरात्रि का आज सातवां दिन है और सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा का विधान है। ऐसा माना जाता है की मां के काले स्वरूप के कारण ही इनका नाम कालरात्रि पड़ा। मां कालरात्रि की विधि-विधान से पूजा अर्चना करने से भक्तों को हर प्रकार के भय से मुक्ति मिल जाती है और समस्त समस्याओं का निवारण भी होता है। ऐसी मान्यता भी है की कालरात्रि होने के कारण माँ अपने उपासकों को काल से भी बचाती हैं अर्थात् उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। अपने भक्तों को मां कालरात्रि सदैव शुभ फल देती है जिस कारण मां को ‘शुभंकारी’ भी कहा जाता है। मां कालरात्रि की कृपा दृष्टि से भक्त हमेशा भयमुक्त रहते है, उन्हें अग्नि भय, जल भय, शत्रु भय, रात्रि भय आदि कभी नहीं होता। साथ ही माँ भूत, प्रेत, राक्षस, दानव और सभी पैशाचिक शक्तियों से भी भक्तों को दूर रखती है। 
माँ कालरात्रि का शरीर रात के अँधेरे की तरह काला होता है और माँ गले में विद्युत की माला पहने होती है। साथ ही माँ के बाल बिखरे हुए होते हैं। मां कालरात्रि के चार हाथ हैं, जिनमें से एक में वो गंडासा और दूसरे में वज्र लिए होती है। इसके अलावा, मां के दो हाथ क्रमश: वरदमुद्रा और अभय मुद्रा में होते हैं। माँ कालरात्रि का वाहन गधा होता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, रक्तबीज नाम के एक राक्षस ने मनुष्य के साथ-साथ देवताओं को भी परेशान कर रखा था। इस राक्षस की विशेषता यह थी कि जैसे ही उसके रक्त की एक बूंद भी धरती पर गिरती थी तो उसके जैसा एक और दानव प्रकट हो जाता था। इस राक्षस से परेशान होकर सभी देवता भगवान शिव के पास मदद मांगने पहुंचे। भगवान शिव को मालूम था कि इस दानव का अंत माँ पार्वती ही कर सकती हैं।
भगवान शिव ने माँ पार्वती से अनुरोध किया जिसके बाद मां ने स्वंय की शक्ति और तेज से मां कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद मां कालरात्रि ने दैत्य रक्तबीज का वध किया और उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को  जमीन पर गिरने से पहले ही अपने मुख में भर लिया। 
माँ कालरात्रि की पूजा करने के लिए आप रोज़ की तरह सुबह उठकर स्नान करके साफ़ वस्त्र धारण कर ले। इसके बाद पूजास्थल की साफ-सफाई कर मां का ध्यान करें। इसके बाद मां कालरात्रि को अक्षत, धूप, गंध, पुष्प और गुड़ का नैवेद्य श्रद्धापूर्वक अर्पित करें।  कहा जाता है की माँ कालरात्रि को गुड़ का भोग पसंद है इसलिए माँ को ये भोग जरूर लगाए। साथ ही मां को उनका प्रिय पुष्प रातरानी अर्पित करें। इसके बाद मां कालरात्रि के मंत्रों का जाप करें और अंत में उनकी आरती करें। 

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